Thursday, July 24, 2008

Bhagwat Katha 1 - नारदजी और भक्ति

एक बार नारदजी पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। उन्होंने वहाँ के सारे तीर्थ स्थानों के दर्शन किए परन्तु उन्हें मन को संतोष देने वाली शान्ति नही मिली। अधर्म के सहायक कलियुग ने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा था। सब जीव अपना धर्म भूल कर केवल अपना पेट पालने में लगे हुए थे। वहाँ न कोई योगी था न सिद्ध, न ज्ञानी था और न कोई सत्कर्म करने वाला।
इस तरह कलियुग के दोष देखते हुए नारदजी यमुनाजी के तट पर पंहुचे। वहाँ उन्होंने एक युवती को देखा जो खिन्न मन से बैठी थी। उसके पास दो वृद्ध पुरूष अचेत अवस्था में पड़े ज़ोर ज़ोर से साँस ले रहे थे। वह युवती उन्हें चेत कराने का प्रयत्न कर रही थी। नारदजी को देखकर वह युवती खड़ी हुई और कहने लगी किमहात्माजी मेरी चिंता का नाश कर दीजिये। नारदजी ने पूछा कि देवी तुम कौन हो और ये दोनों पुरूष तुम्हारे क्या होते हैं?
तब युवती ने उत्तर दिया कि मैं भक्ति हूँ और ये दोनों मेरे पुत्र, ज्ञान और वैराग्य हैं। समय के फेर से ये दोनों जर्जर हो गये हैं। घोर कलियुग के प्रभाव से पाखंडियों ने मुझे अंग भंग कर दिया। चिरकाल तक यह अवस्था रहने के कारण मैं अपने पुत्रों से साथ दुर्बल और निस्तेज हो गई थी। जब से वृन्दावन आई हूँ, तब से मैं पुनः नवयुवती हो गई किंतु मेरे पुत्र अब भी थके मांदे और दुखी हैं। आप बताइए कि ऐसा क्यों है कि मैं तरुणी हो गई और मेरे पुत्र बूडे हैं?
नारदजी ने अपनी ज्ञानदृष्टि से देखकर कहा कि देवी, कलियुग के प्रभाव से सदाचार, योगमार्ग और तप आदि लुप्त होते जा रहे हैं। विषयानुराग के कारण अंधे बने हुए जीवों से उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी। वृन्दावन के संयोग से तुम फिर से तरुणी हो गई हो परन्तु तुम्हारे पुत्रों का यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है। इसलिए इनका बुढापा नही छूट रहा है। नारदजी ने बताया कि राजा परीक्षित ने कलियुग का वध इसलिए नहीं किया था क्योंकि जो फल तपस्या, योग और समाधि से भी नही मिलता, कलियुग में वही फल श्रीहरिकीर्तन से ही मिल जाता है।
इस समय लोगों के कुकर्म में प्रवृत्ति होने के कारण कथा, तीर्थ, तप आदि का सार निकल गया है। नारदजी ने भक्ति को समझाया कि तुम भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों का चिंतन करो, उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायेगा। तुम अपने साक्षात स्वरुप में वैकुंठधाम में ही भक्तों का पोषण करती हो, भूलोक में तो तुमने उनकी पुष्टि के लिए केवल छाया रूप धारण कर रखा है। फिर भी तुम चिंता न करो, मैं इनके नवजीवन का उपाए सोचता हूँ। नारदजी ने वेदध्वनी, वेदान्त ध्वनि और गीता पाठ से उन्हें जगाने का प्रयास किया। किंतु आलस्य के कारण वे दोनों जम्हाई लेते रहे, आँखें खोलकर देख भी नही सके।
उसी समय आकाशवाणी हुई, "हे मुनि, खेद मत करो। तुम्हारा उद्योग सफल होगा। इसके लिए तुम एक सत्कर्म करो, वह कर्म तुम्हे संतशिरोमणि महानुभाव बताएँगे। उस सत्कर्म का अनुष्ठान करते ही क्षण भर में इनकी नींद और वृद्धावस्था चली जायेंगी तथा सर्वत्र भक्ति का प्रसार होगा।"
नारदजी को समझ नही आया कि आकाशवाणी ने कौनसे साधन कि बात कही है और वे संत उन्हें कहाँ मिलेंगे। तब नारदजी वहाँ से चल पड़े और मार्ग में मिलने वाले मुनीश्वरों से वह साधन पूछने लगे। परन्तु किसी ने भी संतोषजनक उत्तर नही दिया। तब नारदजी बहुत चिंतातुर हुए और बदरीवन में आए। उन्होंने निश्चय किया कि वे तप करेंगेउसी समय वहाँ सनकादी मुनीश्वर दिखाई दिए। नारदजी के पूछने पर वे बोले कि पंडितों ने ज्ञानयज्ञ को ही सत्कर्म का सूचक माना है। वह श्रीमद्भागवत का पारायण है, जिसका गान शुकादिमहानुभावों ने किया है। उसके शब्द सुनने से भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को बड़ा बल मिलेगा। श्रीमद्भागवत कथा वेड और उपनिषदों के सार से बनी है। श्रीव्यासदेव ने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य कि स्थापना के लिए प्रकाशित किया है।
नारदजी ने हर्षित होकर कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा। परन्तु यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिए और श्रीमद्भागवत कि कथा कितने दिन में सुनानी चाहिए? इस कथा के सुनने कि विधि क्या है? सनकादी ने बताया कि हरिद्वार के पास एक आनंद नाम का घाट है। वहाँ यह ज्ञानयज्ञ आरम्भ कर दीजिये। भक्ति

Wednesday, July 23, 2008

Bhagwat Katha 2 - आत्मदेव और गोकर्ण

सनकादी मुनि द्वारा नारदजी को कही हुई कथा :
पूर्व काल में एक नगर में एक ब्राह्मण रहता था। उसका नाम आत्मदेव था। वह बहुत ज्ञानी और तेजस्वी था। उसकी पत्नी धुन्धुली कुलीन होने पर भी अपनी बात पर अड़नेवाली थी। वह क्रूर, झगडालू और कंजूस थी। बहुत समय बीत जाने के बाद भी उन दोनों के यहाँ संतान नही हुई। उन्होंने बहुत तरह से दान धर्म निभाया पर कुछ नही हुआ।
एक दिन आत्मदेव दुखी होकर घर छोड़ कर वन को चला गया। वह एक तालाब के पास पंहुचा। पानी पी कर बैठा तो उसने एक सन्यासी महात्मा को वहाँ आते देखा। आत्मदेव ने सन्यासी के चरणों में प्रणाम किया और लम्बी लम्बी साँसे लेने लगा। सन्यासी ने उसके दुःख का कारण पूछा तो वह बोला कि अब देवता और ब्राह्मण भी उसका दिया प्रसन्न मन से स्वीकार नही करते। उसके संतान न होने से वह बहुत दुखी है और आत्महत्या करने आया है। उसके संतानहीन जीवन, घर और धन को धिक्कार है।
जब आत्मदेव सन्यासी के सामने ये सब कहकर रोने लगा तब महात्मा को बहुत दया आई। उन्होंने आत्मदेव से कहा कि मैनें तुम्हारे माथे कीलकीरों में पढ़ा है कि सात जन्मों तक तुम्हारे कोई संतान नही हो सकती इसलिए तुम संसार की वासना छोड़ कर संन्यास ले लो। परन्तु ब्राह्मण ने कहा कि जिसमें पुत्र और स्त्री का सुख नही है वह संन्यास भी नीरस है। महात्मा ने समझाते हुए कहा कि विधाता का लेख मिटाने पर भी तुम्हे संतान से सुख नही मिलेगा।
जब वह ब्राह्मण किसी प्रकार नही माना, तब सन्यासी ने उसे एक फल दिया और कहा कि ये अपनी पत्नी को खिला देना। इससे एक पुत्र होगा। अगर तुम्हारी पत्नी एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखेगी तो बालक बहुत शुद्ध स्वभाव वाला होगा।
ब्राह्मण ने वह फल अपनी पत्नी को दिया और कहीं चला गया। उसकी पत्नी कुटिल स्वभाव कि थी। उसने अपनी सखी से कहा कि मैं यह फल खाऊँगी तो मुझे बहुत कष्ट सहने पड़ेंगे। प्रसव कि पीड़ा, नियमों का पालन आदि सब करना होगा। इसलिए मैं ये फल नही खाऊँगी। उसके पति ने जब घर आकर पूछा कि फल खा लिया तो उसने कहा हाँ खा लिया।
धुन्धुली ने अपनी बहन को सब बात बतायी तो वह बोली कि मेरे पास एक उपाए है। उसकी बहन ने कहा कि मेरे पेट में जो बच्चा है वो मैं तुझे दे दूँगी। तक तक तू गर्भवती के समान घर में गुप्त रूप से रह। तू मेरे पति को कुछ धन दे देगी तो वो तुझे अपना बालक दे देंगे। हम ऐसी युक्ति करेंगे जिससे सब यही कहें कि मेरा बालक छेह महीने का होकर मर गया। फिर मैं तेरे घर आकर उस बालक का पालन पोषण करती रहूंगी। और यह फल तू गौ को खिला दे।
ब्राह्मणी ने सब कुछ अपनी बहन के कहे अनुसार किया। जब उसकी बहन को पुत्र हुआ तो उसकेपति ने चुपचाप उसे धुन्धुली को दे दिया। आत्मदेव बालक के होने ही ख़बर सुनकर बहुत आनंदित हुआ। उसकी स्त्री ने कहा कि बालक के पालन पोषण के लिए मैं अपनी बहन को यहाँ बुला लेती हूँ। आत्मदेव ने कहा ठीक है। उस बच्चे का नाम धुंधकारी रख दिया।
तीन महीने बाद उस गौ ने भी एक मनुष्य के आकार के बच्चे को जन्म दिया। लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ और आत्मदेव के भाग्य कीसराहना करने लगे। आत्मदेव ने बालक के गौ के से कान देखकर उसका नाम गोकर्ण रख दिया।
जब वे दोनों बालक जवान हुए तो गोकर्ण बहुत बड़ा पंडित और ज्ञानी हुआ किंतु धुंधकारी बहुत दुष्ट निकला। चोरी करना, सबसे द्वेष बढाना, दूसरे के बालकों को कुएं में डालना और सबको तंग करना यही उसका स्वभाव था। उसने वेश्याओं के जाल में फँस कर अपने पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर दी। जब सब कुछ ख़तम हो गया तो आत्मदेव बहुत दुखी हुआ और कहने लगा कि इससे तो मेरी पत्नी बाँझ ही रहती। अब मैं कहाँ जाऊं और क्या करूं।
उसी समय गोकर्ण ने आकर अपने पिता को समझाया कि यह संसार असार है। यह अत्यन्त दुखरूप और मोह में डालने वाला है। सुख न तो इन्द्र को है और न ही चक्रवर्ती राजा को। सुख केवल एकांतजीवी विरक्त मुनि को है। "यह मेरा पुत्र है" इस अज्ञान-को छोड़ दीजिये। मोह से नरक कीप्राप्ति है। इसलिए सबकुछ छोड़ कर वन में चले जाइए। गोकर्ण की बात सुनकर आत्मदेव को बहुत अच्छा लगा। उसने अपने पुत्र से उसे और उपदेश देने को कहा।
गोकर्ण ने कहा यहशरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिंड है। इसे मैं मानना छोड़ दीजिये। स्त्री पुत्र आदि को अपना कभी ना मानें। भगवान् का भजन सबसे बड़ा धर्म है। निरंतर उसी का आश्रय लिए रहे। आत्मदेव ने अपने पुत्र की बात सुनकर घर त्याग दिया और वन में रात दिन भगवान् की सेवा- पूजा करने लगा। नियमपूर्वक भागवत के दशम स्कंध का पाठ करने से उसने भगवान् श्री कृष्ण चंद्र को प्राप्त कर लिया।

Monday, July 14, 2008

Ganesh Vandana 1 - गजानन कर दो बेडा पार

गजानन कर दो बेडा पार आज हम तुम्हे मनाते हैं ।
तुम्हे मनाते हैं गजानन तुम्हे मनाते हैं ।।

सबसे पहले तुम्हें मनावें, सभा बीच में तुम्हें बुलावें,
गणपति आन पधारो हम तो तुम्हें बुलाते हैं ।

आओ पार्वती के लाला, मूषक वाहन सूंड सुन्दाला,
जपें तुम्हारे नाम की माला ध्यान लगाते हैं ।

उमापति शंकर के प्यारे, तू भक्तों के काज सँवारे,
बड़े बड़े पापी तारे जो शरण में आते हैं ।

लड्डू पेडा भोग लगावें, पान सुपारी पुष्प चढावें,
हाथ जोड़ कर करें वंदना शीश झुकाते हैं ।

सब भक्तों ने तेर लगाई, सबने मिलकर महिमा गाई,
रिद्धि सिद्धि संग ले आओ हम भोग लगाते हैं ।