एक बार नारदजी पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। उन्होंने वहाँ के सारे तीर्थ स्थानों के दर्शन किए परन्तु उन्हें मन को संतोष देने वाली शान्ति नही मिली। अधर्म के सहायक कलियुग ने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा था। सब जीव अपना धर्म भूल कर केवल अपना पेट पालने में लगे हुए थे। वहाँ न कोई योगी था न सिद्ध, न ज्ञानी था और न कोई सत्कर्म करने वाला।
इस तरह कलियुग के दोष देखते हुए नारदजी यमुनाजी के तट पर पंहुचे। वहाँ उन्होंने एक युवती को देखा जो खिन्न मन से बैठी थी। उसके पास दो वृद्ध पुरूष अचेत अवस्था में पड़े ज़ोर ज़ोर से साँस ले रहे थे। वह युवती उन्हें चेत कराने का प्रयत्न कर रही थी। नारदजी को देखकर वह युवती खड़ी हुई और कहने लगी किमहात्माजी मेरी चिंता का नाश कर दीजिये। नारदजी ने पूछा कि देवी तुम कौन हो और ये दोनों पुरूष तुम्हारे क्या होते हैं?
तब युवती ने उत्तर दिया कि मैं भक्ति हूँ और ये दोनों मेरे पुत्र, ज्ञान और वैराग्य हैं। समय के फेर से ये दोनों जर्जर हो गये हैं। घोर कलियुग के प्रभाव से पाखंडियों ने मुझे अंग भंग कर दिया। चिरकाल तक यह अवस्था रहने के कारण मैं अपने पुत्रों से साथ दुर्बल और निस्तेज हो गई थी। जब से वृन्दावन आई हूँ, तब से मैं पुनः नवयुवती हो गई किंतु मेरे पुत्र अब भी थके मांदे और दुखी हैं। आप बताइए कि ऐसा क्यों है कि मैं तरुणी हो गई और मेरे पुत्र बूडे हैं?
नारदजी ने अपनी ज्ञानदृष्टि से देखकर कहा कि देवी, कलियुग के प्रभाव से सदाचार, योगमार्ग और तप आदि लुप्त होते जा रहे हैं। विषयानुराग के कारण अंधे बने हुए जीवों से उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी। वृन्दावन के संयोग से तुम फिर से तरुणी हो गई हो परन्तु तुम्हारे पुत्रों का यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है। इसलिए इनका बुढापा नही छूट रहा है। नारदजी ने बताया कि राजा परीक्षित ने कलियुग का वध इसलिए नहीं किया था क्योंकि जो फल तपस्या, योग और समाधि से भी नही मिलता, कलियुग में वही फल श्रीहरिकीर्तन से ही मिल जाता है।
इस समय लोगों के कुकर्म में प्रवृत्ति होने के कारण कथा, तीर्थ, तप आदि का सार निकल गया है। नारदजी ने भक्ति को समझाया कि तुम भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों का चिंतन करो, उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायेगा। तुम अपने साक्षात स्वरुप में वैकुंठधाम में ही भक्तों का पोषण करती हो, भूलोक में तो तुमने उनकी पुष्टि के लिए केवल छाया रूप धारण कर रखा है। फिर भी तुम चिंता न करो, मैं इनके नवजीवन का उपाए सोचता हूँ। नारदजी ने वेदध्वनी, वेदान्त ध्वनि और गीता पाठ से उन्हें जगाने का प्रयास किया। किंतु आलस्य के कारण वे दोनों जम्हाई लेते रहे, आँखें खोलकर देख भी नही सके।
उसी समय आकाशवाणी हुई, "हे मुनि, खेद मत करो। तुम्हारा उद्योग सफल होगा। इसके लिए तुम एक सत्कर्म करो, वह कर्म तुम्हे संतशिरोमणि महानुभाव बताएँगे। उस सत्कर्म का अनुष्ठान करते ही क्षण भर में इनकी नींद और वृद्धावस्था चली जायेंगी तथा सर्वत्र भक्ति का प्रसार होगा।"
नारदजी को समझ नही आया कि आकाशवाणी ने कौनसे साधन कि बात कही है और वे संत उन्हें कहाँ मिलेंगे। तब नारदजी वहाँ से चल पड़े और मार्ग में मिलने वाले मुनीश्वरों से वह साधन पूछने लगे। परन्तु किसी ने भी संतोषजनक उत्तर नही दिया। तब नारदजी बहुत चिंतातुर हुए और बदरीवन में आए। उन्होंने निश्चय किया कि वे तप करेंगेउसी समय वहाँ सनकादी मुनीश्वर दिखाई दिए। नारदजी के पूछने पर वे बोले कि पंडितों ने ज्ञानयज्ञ को ही सत्कर्म का सूचक माना है। वह श्रीमद्भागवत का पारायण है, जिसका गान शुकादिमहानुभावों ने किया है। उसके शब्द सुनने से भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को बड़ा बल मिलेगा। श्रीमद्भागवत कथा वेड और उपनिषदों के सार से बनी है। श्रीव्यासदेव ने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य कि स्थापना के लिए प्रकाशित किया है।
नारदजी ने हर्षित होकर कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा। परन्तु यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिए और श्रीमद्भागवत कि कथा कितने दिन में सुनानी चाहिए? इस कथा के सुनने कि विधि क्या है? सनकादी ने बताया कि हरिद्वार के पास एक आनंद नाम का घाट है। वहाँ यह ज्ञानयज्ञ आरम्भ कर दीजिये। भक्ति
इस तरह कलियुग के दोष देखते हुए नारदजी यमुनाजी के तट पर पंहुचे। वहाँ उन्होंने एक युवती को देखा जो खिन्न मन से बैठी थी। उसके पास दो वृद्ध पुरूष अचेत अवस्था में पड़े ज़ोर ज़ोर से साँस ले रहे थे। वह युवती उन्हें चेत कराने का प्रयत्न कर रही थी। नारदजी को देखकर वह युवती खड़ी हुई और कहने लगी किमहात्माजी मेरी चिंता का नाश कर दीजिये। नारदजी ने पूछा कि देवी तुम कौन हो और ये दोनों पुरूष तुम्हारे क्या होते हैं?
तब युवती ने उत्तर दिया कि मैं भक्ति हूँ और ये दोनों मेरे पुत्र, ज्ञान और वैराग्य हैं। समय के फेर से ये दोनों जर्जर हो गये हैं। घोर कलियुग के प्रभाव से पाखंडियों ने मुझे अंग भंग कर दिया। चिरकाल तक यह अवस्था रहने के कारण मैं अपने पुत्रों से साथ दुर्बल और निस्तेज हो गई थी। जब से वृन्दावन आई हूँ, तब से मैं पुनः नवयुवती हो गई किंतु मेरे पुत्र अब भी थके मांदे और दुखी हैं। आप बताइए कि ऐसा क्यों है कि मैं तरुणी हो गई और मेरे पुत्र बूडे हैं?
नारदजी ने अपनी ज्ञानदृष्टि से देखकर कहा कि देवी, कलियुग के प्रभाव से सदाचार, योगमार्ग और तप आदि लुप्त होते जा रहे हैं। विषयानुराग के कारण अंधे बने हुए जीवों से उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी। वृन्दावन के संयोग से तुम फिर से तरुणी हो गई हो परन्तु तुम्हारे पुत्रों का यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है। इसलिए इनका बुढापा नही छूट रहा है। नारदजी ने बताया कि राजा परीक्षित ने कलियुग का वध इसलिए नहीं किया था क्योंकि जो फल तपस्या, योग और समाधि से भी नही मिलता, कलियुग में वही फल श्रीहरिकीर्तन से ही मिल जाता है।
इस समय लोगों के कुकर्म में प्रवृत्ति होने के कारण कथा, तीर्थ, तप आदि का सार निकल गया है। नारदजी ने भक्ति को समझाया कि तुम भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों का चिंतन करो, उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायेगा। तुम अपने साक्षात स्वरुप में वैकुंठधाम में ही भक्तों का पोषण करती हो, भूलोक में तो तुमने उनकी पुष्टि के लिए केवल छाया रूप धारण कर रखा है। फिर भी तुम चिंता न करो, मैं इनके नवजीवन का उपाए सोचता हूँ। नारदजी ने वेदध्वनी, वेदान्त ध्वनि और गीता पाठ से उन्हें जगाने का प्रयास किया। किंतु आलस्य के कारण वे दोनों जम्हाई लेते रहे, आँखें खोलकर देख भी नही सके।
उसी समय आकाशवाणी हुई, "हे मुनि, खेद मत करो। तुम्हारा उद्योग सफल होगा। इसके लिए तुम एक सत्कर्म करो, वह कर्म तुम्हे संतशिरोमणि महानुभाव बताएँगे। उस सत्कर्म का अनुष्ठान करते ही क्षण भर में इनकी नींद और वृद्धावस्था चली जायेंगी तथा सर्वत्र भक्ति का प्रसार होगा।"
नारदजी को समझ नही आया कि आकाशवाणी ने कौनसे साधन कि बात कही है और वे संत उन्हें कहाँ मिलेंगे। तब नारदजी वहाँ से चल पड़े और मार्ग में मिलने वाले मुनीश्वरों से वह साधन पूछने लगे। परन्तु किसी ने भी संतोषजनक उत्तर नही दिया। तब नारदजी बहुत चिंतातुर हुए और बदरीवन में आए। उन्होंने निश्चय किया कि वे तप करेंगेउसी समय वहाँ सनकादी मुनीश्वर दिखाई दिए। नारदजी के पूछने पर वे बोले कि पंडितों ने ज्ञानयज्ञ को ही सत्कर्म का सूचक माना है। वह श्रीमद्भागवत का पारायण है, जिसका गान शुकादिमहानुभावों ने किया है। उसके शब्द सुनने से भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को बड़ा बल मिलेगा। श्रीमद्भागवत कथा वेड और उपनिषदों के सार से बनी है। श्रीव्यासदेव ने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य कि स्थापना के लिए प्रकाशित किया है।
नारदजी ने हर्षित होकर कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा। परन्तु यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिए और श्रीमद्भागवत कि कथा कितने दिन में सुनानी चाहिए? इस कथा के सुनने कि विधि क्या है? सनकादी ने बताया कि हरिद्वार के पास एक आनंद नाम का घाट है। वहाँ यह ज्ञानयज्ञ आरम्भ कर दीजिये। भक्ति
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